Category Archives: पुस्तक परिचय

वाह उस्ताद : डॉ. प्रवीणकुमार झा

मैहर को लोग सरोद-सितार का घराना कहते हैं, लेकिन मैहर भारत में बांसुरी का सबसे सशक्त घराना है। मैहर में ख़ास है कि बाँसुरी के छेद को उँगली की नोक से बंद करते हैं, जिससे बाँसुरी में भी सितार की तरह खूबसूरत मींड लाना आसान होता है। एक और अजीब संयोग यह है कि बाँसुरी जैसी मधुर और कोमल ध्वनि के पीछे दो पहलवान रहे। पन्नालाल घोष तो बंगाल के मुक्केबाज़ी चैंपियन थे, और हरिप्रसाद चौरसिया कुश्ती लड़ते थे। पन्नालाल घोष ने ही बाँसुरी को इतना लंबा बनाया कि उस वक़्त बंगाल में लोग कहते, “उन्होंने हाथ की प्लास्टिक सर्जरी करवाई है। भला उँगलियाँ इतनी दूर तक कैसे पहुँच जाती हैं?” पन्नालाल जी और हरिप्रसाद चौरसिया में एक और साम्य यह है कि जब यह मैहर गुरुओं के पास आए तो पहले से स्थापित बाँसुरी वादक थे। उस वक़्त बड़े-बड़े गुरु बाँसुरी सिखाते भी नहीं थे कि यूँ भी नेपथ्य में ही बजना है। लेकिन इन दोनों को मैहर ने मंच पर अगली पांती दिला दी। जब हरिप्रसाद चौरसिया अन्नपूर्णा देवी के पास आए, तो वह रेडियो में पहले से बजाते थे। अन्नपूर्णा देवी ने कहा, “मैं तभी सिखाऊँगी, जब तुम अब तक का सीखा भूल जाओगे।”
वह सोचते रहे कि आख़िर सब सीखा हुआ भूलें तो भूलें कैसे? फिर उन्हें एक तरकीब सूझी। वह अब तक बाँसुरी दायीं ओर पकड़ते थे, उन्होंने बदल कर बायीं ओर से पकड़ना शुरू कर दिया। अब तक जो काम पहले दायाँ हाथ करता, अब बायाँ करने लगा। और हरिप्रसाद चौरसिया ने वाकई एक अबोध बालक की तरह शून्य से सीखना शुरू किया। उन्होंने अन्नपूर्णा देवी की बेटे की तरह सेवा की। और यही सेवा एक और शीर्ष बाँसुरी वादक नित्यानंद हल्दीपुर जी ने की। वह तो उनकी मृत्यु तक उनके साथ रहे, जबकि गुरु-शिष्य की ऐसी परंपरा अब क्षीण हो चुकी थी।


अश्या अनेक ज्ञात – अज्ञात घटना आणि किस्से यांनी सजलेलं डॉ. प्रवीण कुमार झा यांचं ” वाह उस्ताद ” हे अप्रतिम पुस्तक. शास्त्रीय संगीत, वाद्य – वादन मग त्यात बासरी, सरोद, सितार, सुरबहार अशी अनेक ज्ञात अज्ञात वाद्ये आणि त्यांच्याशी संबंधीत विख्यात घराणी यांच्या जन्मापासून, त्या त्या घराण्याचं महत्त्व, त्याची वैशिष्ठ्ये यावर भाष्य करतं हे पुस्तक.

हि विविध घराणी ज्या महान कलावंतापासून सुरू झाली, त्या कलावंताचे आयुष्य, त्यांची क्षमता, त्यांचे विचित्र स्वभाव, त्यांचा लहरीपणा, त्यांचे योग्य आणि कलेशी निष्ठावंत शिष्यासाठी सगळ्या जगाशी वाकडे घेणे. आपल्या स्वभावातील तऱ्हेवाईकपणा, घमेंड, अहंकार जपताना आपल्या कलेसाठी मात्र त्यांचे काहीही करायला तयार होणे यावर भाष्य करते हे पुस्तक.

आगरा घराणे, बनारस घराणे, भिंडी बाज़ार घराणे (मुंबई), बिष्णुपुर घराणे (ध्रुपद), दरभंगा घराणे (ध्रुपद), डागुर घराणे/बानी (ध्रुपद), दिल्ली घराणे, ग्वालियर घराणे , इंदौर घराणे, इटावा घराणे, जयपुर आणि अल्लादिया खान घराणे, किराना घराणे (कैराना, उत्तर प्रदेश), कश्मीरचे संतूर घराणे, लखनऊ घराणे, मेवात घराणे, मैहर घराणे, पटियाला घराणे (पंजाब), रामपुर सहसवान घराणे, शाम चौरसिया घराना (पंजाब) Sh—शाहजहाँपुर घराणे, तलवंडी घराणे (पाकिस्तान) आणि अश्या शास्त्रीय संगीत आणि वादनाच्या कितीतरी ज्ञात अज्ञात घराण्याची निर्मिती, त्यांचे वटवृक्षाप्रमाणे पसरत जाणे. या घराण्यांचे बलस्थान असलेले गायक, वादक आणि त्यांच्या गायकीचे, त्यांच्या सामर्थ्याची दाद आणि दखल घ्यायला लावणारे शेकडो किस्से सांगते हे पुस्तक.

शेवटी अजून एक असाच या पुस्तकातील संदर्भ सांगून थांबतो. बाकी तुम्ही पुस्तकातच वाचा.


अलादिया ख़ान ने मोगूबाई कुर्दीकर को गंडा बाँधा या नहीं, इस पर विवाद होते रहेंगे। लेकिन उनकी बेटी किशोरी अमोनकर ने संगीत में मिसाल कायम कर दी। किशोरी अमोनकर जी के गायन के बीच एक ऑफ़िसर की पत्नी ने पान मँगवाने के लिए आवाज़ दी, तो वो भड़क गई और कहा, “क्या मैं कोई कोठेवाली लगती हूँ आपको?” ऐसे कई किस्से हैं। उनकी कई शर्तें थीं कि ऐसा माहौल, ऐसी तैयारी, ऐसी गाड़ी, ऐसी ऑडियन्स। एक अलग ही रुतबा था। एक महिला गायिका के लिए यह रुतबा बड़ी चीज़ है। लोग कहते हैं, वो केसरबाई केरकर से मिलती-जुलती थीं मिजाज़ के हिसाब से। मैं कहता हूँ कि वह केसरबाई, विलायत खान साहब और कुमार गंधर्व, तीनों मिलाकर एक थीं।

केसरबाई केरकर भी जयपुर-अतरौली घराने5 से थीं, जहाँ से किशोरी जी की माँ मोगूबाई थीं, तो यह समानता तो आनी ही थी। उन दिनों महिला गायिकाओं का पायदान नीचे होता, पर किशोरी जी ने कभी अपना कद नीचे नहीं होने दिया। वह घर में घंटों रियाज़ कर लेतीं, पर उस प्रोग्राम में नहीं गातीं जहाँ उनकी इज़्ज़त न हो। इस मामले में वह कुछ-कुछ विलायत खान साहब के स्वभाव की थीं। उन्होंने आकाशवाणी में गाना छोड़ दिया था जब ‘क्लास-सिस्टम’ आया। उनकी अपनी निर्धारित फ़ीस थी। जो उनको ऐफ़ॉर्ड कर सकें, बुलाएँ। नहीं तो वो घर पर रियाज़ करेंगे। किशोरी जी की भी यही शर्त थी। हिन्दुस्तानी संगीत है, कोई ऑर्केस्ट्रा पार्टी नहीं, कि मोल-भाव करो। जैसे विलायत खान साहब अवार्ड लेने से इनकार करते, वैसे ही किशोरी जी ने भारत-रत्न न मिलने पर कहा था, “जिस कैटगरी के अवार्ड में सचिन तेंदुलकर हों, उस कैटगरी से मुझे बाहर ही रखिए।”

ऐसा ही कुछ-कुछ कुमार गंधर्व वाली बात। वह भी कुमार गंधर्व जी की तरह घरानों में विश्वास नहीं करतीं। किशोरी जी किसी एक घराने की थी ही नहीं। उनकी माँ जयपुर घराना, एक गुरु भिंडी बाज़ार घराना, एक गुरु आगरा घराना। वह कहतीं कि घराने संगीत को बाँध देते हैं। यह भी इत्तेफ़ाक ही है कि कुमार गंधर्व जी और किशोरी जी, दोनों की आवाज़ अचानक से 25 वर्ष की उमर में कुछ वर्ष के लिए चली गई। कुमार गंधर्व जी को टी.बी. हो गयी, और किशोरी जी की अपने-आप चली गई। जैसे भगवान परख रहे हों। और जब वापस आई, तो दोनों की आवाज़ ने मिसाल कायम कर दी। यह चमत्कार ही तो है। मैंने भले ही उन्हें इन तीन हस्तियों से जोड़ा हो, पर गायन के तौर पर मुझे उनमें उस्ताद अमीर खान की छवि दिखती है। दोनों को सुनने के लिए श्रोता में भी धैर्य चाहिए। इनका आलाप लंबा होता है। यह बंदिश पर नहीं, सुर पर ध्यान देते हैं। इन्हें एक सुर मिल जाता है, उसी को पकड़ कर घंटों गा सकते हैं। पर ध्यान रखें, इन्हें सुर मिल जाता है। सबको सुर नहीं मिल पाता, ढूँढते रह जाते हैं। आज कई लोगों की गायकी पर इस घराने का प्रभाव है, मसलन अश्विनी भिडे-देशपांडे जी। लेकिन एक गायिका जिनमें जयपुर घराने का भविष्य नज़र आता है—वह हैं मंजरी असनारे-केसकर। उनमें केसरबाई या मोगूबाई जैसी आवाज़ में भारीपन नहीं, लेकिन किशोरी जी जैसी गंभीरता और धैर्य नज़र आता है !


एक अतिशय उत्तम आणि संग्रही ठेवण्याजोगे पुस्तक आहे हे. किंडलवर उपलब्ध आहे.

पुस्तकाचे शिर्षक: वाह उस्ताद !
लेखक : डॉ. प्रवीण कुमार झा
प्रकाशक: राजपाल अँड सन्स, दिल्ली

© विशाल कुलकर्णी

All soldiers run away …

All Soldiers Run Away : Alano’s War
Author : Andy Owen

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War is not only about killing. It is about taking away your enemies will to fight. It is easier and causes fewer casualties on your side if you can get your enemy to stop fighting. German Stukas used sirens to terrify the targets of their dive bombing. Those who survive know what the sound of the sirens meant and the fear lingered on. Constant artillery barrages and chemical weapons were to inflict physiological damage. Sleep deprivation, concussion from artillery, and general wearing down of the enemy troops is the goal. Some people can handle the stress better than others. Some people simply break down mentally. 

गुंथर बान्हमानचं अतिशय गाजलेलं असं एक पुस्तक आहे ‘डेझर्टर’ ! हिटलर सातत्याने घेत असलेले चुकीचे निर्णय आणि त्यामुळे युद्धाच्या विरोधात गेलेला एक सामान्य सैनिक ऐन युद्धभूमीतुन पलायन करतो त्याची ती कथा होती.

डेझर्शन किंवा युद्धभुमीतुन पलायन करणे यामागे फक्त भित्रेपणा किंवा मृत्युची भीती किंवा युद्धाबद्दल अचानक निर्माण झालेला तिरस्कार एवढीच कारणे नसतात. लेखक म्हणतो The reasons for desertion are many, from fear of death to moral grounds (war for oil). One reason that is not usually discussed is mental exhaustion. Shellshock first came into being as a mental illness in the first world war. However, this was after many who suffered were executed for desertion and cowardice. Shellshock remained a problem after the war although there was little progress in treatment. In Virginia Woolf’s novel Mrs. Dalloway, Septimus Warren Smith is a WWI veteran being treated for shellshock with a tragic outcome. Shellshock was a problem but it was far from understood. Today shellshock is more correctly called Post Traumatic Stress Disorder (PTSD).

अशाच काहीश्या कारणामुळे दुसऱ्या महायुद्धात अलानोच्या रणभूमीवर रोमेलच्या सैन्याशी लढ़ताना पळ काढलेल्या एका ब्रिटिश सैनिकाची ही कथा आहे. असेही नाही की हा कुणी पळपुटा, भित्रा माणूस आहे. पळून जाण्यापूर्वी जवळजवळ ५५१ दिवस तो उत्तर आफ्रिकेमध्ये जर्मन सैन्याशी झुन्जणाऱ्या ब्रिटिश सैन्यातुन लढत होता. But the war broke him mentally.

वॉर वेटरन्समध्ये PTSD हा खुप कॉमन आणि मेजर आजार आहे. कार वर Support Soldiers किंवा We support our troops चे स्टिकर मैग्नेट्स लावून या आजाराचा सामना करता येत नाही. युद्धात लढणाऱ्या सैनिकासाठी ते प्रोत्साहन ठरू शकते. पण युद्ध संपल्यावर घरी परतलेल्या (युद्ध जरी जिंकले असले तरी) त्या मानसिक तणावामुळे आतून ढासळलेल्या सैनिकाला खऱ्या आधाराची गरज असते आणि तो कुटुंबिय सोडले तर सहसा इतर कुणीही देवू शकत नाही, देत नाही.

लेखक स्वत: ब्रिटिश आर्मीमध्ये इंटेलिजेंस कॉर्प्समध्ये कॅप्टन म्हणून होते. नॉर्दन आयरलैंड , इराक, अफगानिस्तान अश्या कित्येक महत्वाच्या युद्धात त्यांनी भरीव कामगिरी बजावलेली आहे. एक सैनिक म्हणून एका सैनिकाचा माणूस म्हणून विचार करत या अतिशय महत्वाच्या विषयाला लेखक अँडी ओवेन्स यांनी या पुस्तकातुन वाचा फोडलेली आहे.

#©VishalKulkarni